भैरव रूप शिव-स्तुति
देव,
भीषणाकार, भैरव, भयंकर, भूत-प्रेत-प्रमथाधिपति, विपति-हर्ता ।
मोह-मूषक-मार्जार, संसार-भय-हरण, तारण-तरण, अभय कर्ता ॥१॥
अतुल बल, विपुल विस्तार, विग्रह गौर, अमल अति धवल धरणीधराभं ।
शिरसि संकुलित-कल-जूट पिंगलजटा, पटल शत-कोटि-विद्युच्छटाभं ।।२।।
भ्राज विबुधापगा आप पावन परम, मौलि-मालेव शोभा विचित्रं ।
ललित लल्लाटपर राज रजनीश के, कलाधर, नौमि हर धनद-मित्रं ॥३॥
इंदु-पावक-भानु-नयन, मर्दन-मयन, गुण-अयन, ज्ञान-विज्ञान-रूपं ।
रमण-गिरिजा, भवन भूधराधिप सदा, श्रवण कुंडल, वदनछवि अनूपं ॥४॥
चर्म-असि-शूल-धर,डमरु-शर-चाप-कर,यान वृषभ,करुणा-निधानं ।
जरत सुर-असुर,नरलोक शोकाकुल,मृदुल चित,अजित,कृत गरलपानं ॥५॥
भस्म तनु-भूषणं, व्याघ्र-चर्माम्बरं, उरग-नर-मौलि उर मालधारी।
डाकिनी, शाकिनी, खेचरी, भूचरं, यंत्र-मंत्र-भंजन, प्रबल कल्मषारी ॥६ ॥
काल-अतिकाल,कलिकाल, व्यालादि-खग,त्रिपुर-मर्दन,भीम-कर्म भारी ।
सकल लोकात-कल्यान्त मूलाग्र कृत दिग्गज अव्यक्त-गुण नृत्यकारी ॥७॥
पाप-संताप-घनघोर संसृति दीन, भ्रमत जग योनि नहिं कोपि त्राता ।
पाहि भैरव-रूप राम-रूपी रुद्र, बंधु, गुरु, जनक, जननी, विधाता ॥८॥
यस्य गुण-गण गणति विमल मति शारदा, निगम नारद-प्रमुख ब्रह्मचारी।
शेष, सर्वेश, आसीन आनंदवन, दास तुलसी प्रणत-त्रासहारी ॥१ ॥
भावार्थ-हे भीषण मूर्ति भैरव ! आप भयंकर हैं। भूत, प्रेत और गणोंके स्वामी हैं। विपत्तियोंके हरण करनेवाले हैं । मोहरूपी चूहेके लिये आप बिलाव हैं; जन्म-मरणरूप संसारके भयको दूर करनेवाले हैं; सबको तारनेवाले, स्वयं मुक्तरूप और सबको अभय करनेवाले हैं । १ ॥ आपका बल अतुलनीय है तथा अति विशाल शरीर गौरवर्ण, निर्मल, उज्ज्वल और शेषनाग की-सी कान्तिवाला है। सिरपर सुन्दर पीले रंगका सौ करोड़ बिजलियोंके समान आभा वाला जटाजूट शोभित हो रहा है। २ ॥ मस्तक पर माला की तरह = विचित्र शोभावाली, परम पवित्र जलमयी देवनदी गंगा विराजमान है। सुन्दर ललाट पर चंद्रमा की कमनीय कला शोभा दे रही है, ऐसे कुबेरके मित्र शिवजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥३॥ चन्द्रमा, अग्नि और सूर्य आपके नेत्र हैं; आप कामदेव का दमन करनेवाले हैं, गुणोंके भण्डार और ज्ञान-विज्ञानरूप हैं। पार्वतीके साथ आप विहार करते हैं और सदा ही पर्वतराज कैलास आपका भवन है। आपके कानोंमें कुण्डल हैं और आपके मुखकी सुन्दरता अनुपम है ॥ ४ ॥ आप ढाल, तलवार और शूल धारण किये हुए हैं; आपके हाथों में डमरू, बाण और धनुष हैं। बैल आपकी सवारी है और आप करुणाके खजाने हैं। आपकी करुणाका इसीसे पता लगता है कि आप समुद्र से निकले हुए भयानक अजेय विषकी ज्वालासे देवता, राक्षस और मनुष्य को को जलता हुआ और शोक से व्याकुल देखकर करुणाके वश होकर उसे स्वयं पी गये । ५॥ भस्म आपके शरीरका आभूषण है, आप बाघंबर धारण किये हुए हैं। आपने साँपों और नरमुण्डोंकी माला हृदयपर धारण कर रखी है। डाकिनी, शाकिनी, खेचर (आकाशमें विचरनेवाली दुष्ट आत्माओं), भूचर (पृथ्वी पर विचरने वाले भूत-प्रेत आदि) तथा यन्त्र-मन्त्र आप नाश करनेवाले हैं। प्रबल हैं। पापों को पलभर में नष्ट कर डालते हैं ६ ॥ आप काल के भी महाकाल हैं, कलिकालरूपी सर्प के लिये आप गरुड़ हैं। त्रिपुरासुर का मर्दन करनेवाले तथा और बड़े-बड़े भयानक कार्य करनेवाले हैं। समस्त लोकों के नाश करनेवाले महाप्रलयके समय अपनी त्रिशूलकी नोकसे दिग्गजोंको छेदकर आप गुणातीत होकर नृत्य करते हैं ॥७॥ इस पाप-सन्तापसे पूर्ण भयानक संसारमें मैं दीन होकर चौरासी लाख योनियोंमें भटक रहा हूँ, मुझे कोई भी बचानेवाला नहीं है। हे भैरवरूप ! हे रामरूपी रुद्र !! आप ही मेरे बन्धु, गुरु, पिता, माता और विधायक हैं। मेरी रक्षा कीजिए ॥ ८ ॥ जिनके गुणोंका निर्मल बुद्धि वाली सरस्वती, वेद और नारद आदि ब्रह्म ज्ञानी तथा शेषजी सदा गान करते हैं, तुलसीदास कहते हैं, वे भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाले सर्वेश्वर शिवजी आनन्दवन काशीमें विराजमान हैं ॥ ९॥
सदा
शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं, शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं ।
काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं, वामदेवं भजे भावगम्यं ॥१॥
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं, सुंदरं, सच्चिदानंद कंदं।
सिद्ध-सनकादि-योगींद्र-वृंदारका, विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं ॥२॥
ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं, विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं ।
नौमि करुणाकरं, गरल-गंगाधरं, निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं ॥३॥
लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं, शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानु ।
कालकालं, कलातीतमजरं, हरं, कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं ॥४॥
तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्व सौभाग्य मूलं।
प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजन, दास तुलसी शरण सानुकूलं ॥ ५ ॥
भावार्थ-कल्याणकारी, कल्याण के दाता, संतजनोंको आनन्द देने वाले, हिमाचल कन्या पार्वती के पति, परम रमणीय, कामदेव के घमण्डको चूर्ण करनेवाले, कमलनेत्र, भक्ति से प्राप्त होने वाले महादेव का मैं भजन करता हूँ ॥ १ ॥ जिनका शरीर शंख, कुन्द, चन्द्रमा और कपूरके समान चिकना, कोमल, शीतल, श्वेत और सुगन्धित है; जो कल्याणरूप, सुन्दर और सच्चिदानन्द कन्द हैं। सिद्ध, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, योगिराज, देवता, विष्णु और ब्रह्मा जिनके चरणारविन्दकी वन्दना किया करते हैं।। २॥ जिनको ब्राह्मणों का कुल प्रिय है; जो संतोंको सुलभ और दुर्जनोंको दुर्लभ हैं; जिनका वेष बड़ा विकराल है; जो विभु हैं और वेदों के अतीत हैं; जो करुणाकी खान हैं; गरलको (कण्ठमें) और गङ्गाको (मस्तकपर) धारण करनेवाले हैं; ऐसे निर्मल, निर्गुण और निर्विकार शिवजीको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥ जो लोकोंके स्वामी, शोक और शूलको निर्मूल करनेवाले; त्रिशूलधारी तथा महान् मोहान्धकारको नाश करनेवाले सूर्य हैं। जो काल के भी काल हैं, कलातीत हैं, अजर हैं, आवागमनरूप संसारको हरनेवाले और कठिन कलिकालरूपी वनको जलानेके लिये अग्नि हैं ॥ ४॥ यह तुलसीदास उन तत्त्ववेत्ता, अज्ञानरूपी समुद्र को सोखने के लिये अगस्त्यरूप, सर्वान्तर्यामी, सब प्रकारके सौभाग्यकी जड़, जन्म-मरणरूप अपार संसारका नाश करनेवाले, शरणागत जनोंको सुख देनेवाले, सदा सानुकूल शिव जी की शरण है ॥ ५॥