एक बालकको किसी अपराध में कैद की सजा हो गयी थी। एक बार अवसर पाकर वह जेल से भाग निकला। बड़ी भूख लगी थी, इसलिये समीप गाँव में उसने एक झोपड़ी में जाकर कुछ खाने को मांगा। झोपड़ी में एक अत्यन्त गरीब किसान परिवार रहता था। किसान ने कहा-‘भैया ! हमलोगोंके पास कुछ भी नहीं है, जो हम तुमको दें। इस साल तो हम लगान भी नहीं चुका सके हैं। इससे मालूम होता है दो-ही-चार दिनोंमें यह जरा-सी जमीन और झोपड़ी भी कुर्क हो जाएगी। फिर क्या होगा, भगवान ही जाने।
किसान की हालत सुनकर बालक अपनी भूखको भूल गया और उसे बड़ी दया आई। उसने कहा- 1. -‘देखो, मैं अभी जेल से भागकर आया हूँ, तुम मुझे पकड़कर पुलिस को सौंप दो तो तुम्हें पचास रुपये इनाम मिल जाएंगे । बताओ तो, तुम्हें लगान के कितने रुपये देने हैं ?’ किसानने कहा- ‘भैया! चालीस रुपये हैं; परंतु तुम्हें मैं कैसे पकड़वा ढूँ?’ लड़केने कहा-‘बस, चालीस ही रुपये हैं, तब तो काम हो गया; जल्दी करो।’
किसान ने बहुत-नहीं की, परंतु लड़की के हठसे किसान को उसकी बात माननी पड़ी। वह उसके दोनों हाथोंमें रस्सी बाँधकर थाने में दे आया । किसानको पचास रुपये मिल
गये। बालकपर जेलसे भागनेके अभियोगमें मुकदमा चला। प्रमाणके लिये गवाह के रूप में किसान को बुलाया गया। ‘कैदीको तुमने कैसे पकड़ा ?’ हाकिमके यह पूछने पर किसी ने
सारी घटना सच-सच सुना दी। सुनकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ और लोगोंने इकट्ठे करके किसानों को पचास रुपये और दो दिये।
हाकिमको बालककी दयालुतापर बड़ी प्रसन्नता हुई। पहले के अपराध का पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि बहुत ही मामूली अपराध पर उसे सजा हो गयी थी हाकिमकी सिफारिसपर सरकारने बालकको बिलकुल छोड़ दिया और उसकी बड़ी तारीफ तथा ख्याति हुई। पुण्य तो हुआ ही।