दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं ॥१ ॥
मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
ता ठाकुर को रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं ॥२॥
जोग कोटि करि जो गति सरसों, मुनि माँगत सकुचानी ।
बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं ॥३॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं ।
तुलसीदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं ॥४॥
भावार्थ-शंकर के समान दानी कहीं नहीं है । वे दीन दयालु है, देना ही उनके मन भाता है, माँगनेवाले उन्हें सदा सुहाते हैं। १ ॥ वीरोंमें अग्रणी कामदेव को भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगत्में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभुका प्रसत्र होकर कृपा करना मुझसे क्यों कर कहा जा सकता है ? ॥ २ ॥ करोड़ों प्रकार से योग की साधना करके मुनिगण जिस परम गतिको भगवान हरिसे माँगते हुए सकुचाते हैं वही परम गति त्रिपुरारि शिव जी की पूरी काशीमें कीट-पतंग भी पा जाते हैं, यह वेदों से प्रकट है॥ ३ ॥ ऐसे परम उदार भगवान् पार्वतीपतिको छोड़कर जो लोग दूसरी जगह माँगने जाते हैं, उन मूर्ख माँगनेवालोंका पेट भलीभाँति कभी नहीं भरता ॥ ४ ॥
बावरो रावरो नाह भवानी ।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद-बड़ाई बानी॥१॥
निज घरकी बरबात बिलोकहु, हो तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी ॥२॥
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।
तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हैं आयो नकबानी ॥३॥
दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपने और, भीख भली मैं जानी ॥४॥
प्रेम-प्रशंसा-विनय-व्यंग जुत, सुनि बिधिकी बर बानी।
तुलसी मुदित महेश मनहिं मन, जगत-मातु मुसुकानी ॥५॥
भावार्थ- (ब्रह्माजी लोगोंका भाग्य बदलते-बदलते हैरान होकर पार्वतीजीके पास जाकर कहने लगे) हे भगवान ! आपके नाथ (शिवजी) पागल हैं। सदा देते ही रहते हैं। जिन लोगोंने कभी किसीको दान देकर बदलेमें पानेका कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त किया, ऐसे लोगोंको भी वे दे डालते हैं, जिससे वेदकी मर्यादा टूटती है॥ १ ॥ आप बड़ी सयानी हैं, अपने घरकी भलाई तो देखिये (यों देते-देते घर खाली होने लगा है, अनधिकारियोंको) शिवजीकी दी हुई अपार सम्पत्ति देख-देखकर लक्ष्मी और सरस्वती भी (व्यंगसे) आपकी बड़ाई कर रही हैं। २ ॥ जिन लोगोंके मस्तकपर मैंने सुखका नाम-निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिव जी के पागलपनके कारण उन कंगालोंके लिये स्वर्ग सजाते-सजाते मेरे नाकों दम आ गया है ॥ ३ ॥ कहीं भी रहनेको जगह न पाकर दीनता और दुखियोंके दुःख भी दुखी हो रहे हैं और याचकता तो व्याकुल हो उठी हैं। लोगोंकी भाग्यलिपि बनाने का यह अधिकार कृपा कर आप किसी दूसरे को सौंपा, मैं तो इस अधिकार की अपेक्षा भीख माँगकर खाना अच्छा समझता हूँ ॥ ४॥ इस प्रकार ब्रह्माजी की प्रेम, प्रशंसा, विनय और व्यंग्य भरी हुई सुन्दर वाणी सुनकर महा देवता मन-ही-मन मुदित हुए और जगत जननी पार्वती मुसकराने लगीं॥ ५
देव,
मोह-तम-तरणि, हर, रुद्र, शंकर, शरण, हरण, मम शोक लोकाभिरामं ।
बाल-शशि-भाल,सुविशाल लोचन-कमल, को- सतकोटि-लावण्या-धामं ।।
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-विग्रह रुचिर, तरुण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै ।
भस्म सर्वांग अर्धांग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै ।२।
मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि-चरण-पंत ।
श्रवण कुंडल, गरल कंठ, करुणाकंद, सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं॥३॥
शूल-शायक पिनाकासि-कर, शत्रु-वन-दहन इव धूमध्वज, वृषभ-यानं ।
व्याघ्र-गज-चर्म-परिधान, विज्ञान-घन,सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं ॥
तांडव-नृत्य पर, डमरु डिंडिम प्रवर, अशुभ इव भाति कल्याण राशी ।
महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसन काशी ॥५॥
तज्ञ, सर्वज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भवदंशसंभव पुरारी ।
ब्रह्मेंद्र, चंद्रार्क, वरुणाग्नि, वसु, मरुत, यम, अर्चि भवदंघ्रि सर्वाधिकार ॥
अकल, निरुपाधि, निर्गुण, निरंजन, ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं ।
अखिलविग्रह, उग्ररूप, शिव, भूपसुर, सर्वगत, शर्व सर्वोपकारं ॥७ ॥
ज्ञान-वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव!सानुकूल ।
तदपि नर मूढ आरूढ संसार-पथ, भ्रमत भव, विमुख तव पादमूलं ॥८॥
नष्टमति, दुष्ट अति, कष्ट-रत, खेद-गत,दास तुलसी शंभू-शरण आया ।
देहि कामारि ! श्रीराम-पद-पंकजे भक्ति अनवरत गत-भेद-माया ॥९॥
भावार्थ-हे शिव ! मोहान्धकारका नाश करनेके लिये आप साक्षात् सूर्य हैं। हे हर ! हे चंद्र ! हे शरण्य ! हे लोकाभिराम ! आप मेरा शोक हरण करनेवाले हैं, आपके मस्तकपर द्वितीयाका बाल-चन्द्र शोभा पा रहा है, आपके बड़े-बड़े नेत्र कमलके समान हैं। आप सौ करोड़ कामदेव के समान सुन्दरताके भण्डार हैं ॥ १ ॥ आपकी सुन्दर मूर्ति शंख, कुन्द, चन्द्रमा और कपूरके समान शुभ्रवर्ण है; करोड़ों मध्याह्न के सूर्य की समान आपके शरीरका तेज झलमला रहाहै; समस्त शरीरमें भस्म लगी हुई है। आधे अंगमें हिमाचल-कन्या पार्वतीजी शोभित हो रही हैं; साँपों और नर-कपालोंकी माला आपके गलेमें विराज रही है॥२॥ मस्तकपर बिजलीके समान चमकते हुए पिङ्गलवर्ण जटा-जूट का मुकुट है तथा भगवान श्रीहरि के चरणों से पवित्र हुई गङ्गाजीका श्रेष्ठ जल शोभित है । कानोंमें कुंडल हैं; कण्ठमें हलाहल विष झलक रहा है; ऐसे करुणाकन्द सच्चिदानन्दस्वरूप, अवधूत वेश भगवान शिव जी की मैं वन्दना करता हूँ॥ ३ ॥ आपके करकमलोंमें शूल, बाण, धनुष और तलवार है; शत्रुरूपी वनको भस्म करनेके लिये आप अग्निके समान हैं। बैल आपकी सवारी है । बाघ और हाथीका चमड़ा आप शरीरमें लपेटे हुए हैं। आप विज्ञानघन हैं यानी आपके ज्ञानमें कहीं कभी अवकाश नहीं है तथा आप सिद्ध, देव, मुनि, मनुष्य आदिके द्वारा सेवित हैं ॥ ४ ॥ आप ताण्डव-नृत्य करते हुए सुन्दर डमरूको डिमडिम डिमडिम बजाते हैं, देखनेमें अशुभरूप प्रतीत होनेपर भी आप कल्याणकी खानि हैं। महाप्रलयके समय आप सारे ब्रह्मांड को भस्म कर डालते हैं, कैलास आपका भवन है और काशीमें आप आसन लगाये रहते हैं। ५ ॥ आप त्त्वके जाननेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, यज्ञों के स्वामी हैं, विभु (व्यापक) हैं, सदा अपने स्वरूपमें स्थित रहते हैं। हे पुरारि ! यह सारा विश्व आपके ही अंशसे उत्पन्न है। ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वरुण, अग्न, आठ वसु, उनचास मरुत् और यम आपके चरणोंकी पूजा करनेसे ही सर्वाधिकारी बने हैं ॥ ६॥ आप कलारहित हैं, उपाधिरहित हैं, निर्गुण हैं, निर्लेप हैं, परब्रह्म । कर्म-पथमें एक ही हैं, जन्मरहित और निर्विकार हैं। सारा विश्व आपकी ही मूर्ति है, आपका रूप बड़ा उग्र होनेपर भी आप मङ्गलमय हैं, आप देवताओं के स्वामी हैं, सर्वव्यापी हैं, संहारकर्ता होते हुए भी सबका उपकार करनेवाले हैं ॥ ७ ॥ हे शिव ! आप जिसपर अनुकूल होते हैं उसको ज्ञान, वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख (मोक्ष) और सुन्दर सौभाग्य आदि सब सहज ही मिल जाते हैं; तो भी खेद है कि मूर्ख मनुष्य आपकी चरणसेवासे मुँह मोड़कर संसारके विकट पथपर इधर-उधर भटकते फिरते हैं ॥ ८॥ हे शम्भो ! हे कामारि !! मैं नष्ट-बुद्धि, अत्यन्त दुष्ट, कष्टोंमें पड़ा हुआ, दुःखी तुलसीदास आपकी शरण आया हूँ; आप मुझे श्रीरामके चरणारविन्दमें ऐसी अनन्य एवं अटल भक्ति दीजिये जिससे भेदरूप मायाका नाश हो जाय ॥९॥