सतयुग की बात है। एक बार देशमें दुर्भिक्ष पड़ा। वर्षा के अभावसे अन्न नहीं हुआ। पशुओंके लिये चारा नहीं रहा। दूसरे वर्षा भी वर्षा नहीं हुई। विपत्ति बढ़ती गयी। नदी-तालाब सूख चले । मार्तण्ड की प्रचण्ड किरणों से धरती रसहीन हो गयी । तृण 1. भस्म हो गये। वृक्ष निष्प्राण हो चले। मनुष्यों और पशुओंमें हाहाकार मच गया।
दुर्भिक्ष बढ़ता गया। एक वर्ष नहीं, दो वर्ष नहीं, पूरे बारह वर्षोंतक अनावृष्टि रही। लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। कहीं अन्न नहीं, जल नहीं, तृण नहीं, वर्षा और शीत ऋतु नहीं। सर्वत्र सर्वदा एक ही ग्रीष्म-ऋतु । धरतीसे उड़ती धूल और अग्नि में सनी तेज लू। आकाश में पंख पसारे दल-के दल उड़ते पक्षियों के दर्शन दुर्लभ हो गये। पशु-पक्षी ही नहीं, कितने मनुष्य कालके दयालु और परोपकारी बालक-बालिकाएँ
६ गालमें गये, कोई संख्या नहीं। मातृ-स्तन दूध न पाकर कितने सुकुमार शिशु मृत्यु की गोद मे सो गये, कौन जाने ! पर कंकालको देखकर करुणा भी करुणासे भींग जाती, किंतु एक मुट्ठी अन्न किसीको कोई कहाँसे देता। नरेशका अक्षय कोष और धनपतियोंके धन अन्नकी व्यवस्था कैसे करते ? परिस्थिति उत्तरोत्तर बिगड़ती ही चली गयी। प्राणों के लाले पड़ गये
किसीने बतलाया कि नरमेध किया जाय तो वर्षा हो सकती है। लोगोंको बात तो जँची; पर प्राण सबको प्यारे हैं। बलात् किसीकी बलि दी नहीं जा सकती। विशाल जन-समाज एकत्र हुआ था, पर सभी चुपचाप थे।
सबके सिर झुके थे। अचानक नीरवता भङ्ग हुई। सबने दृष्टि उठायी, देखा बारह वर्ष का अत्यन्त सुन्दर बालक खड़ा है। उसके अङ्ग-अङ्गसे कोमलता जैसे चू रही थी। उसने कहा ‘उपस्थित महानुभावो ! असंख्य प्राणियों की रक्षा एवं देशको संकटकी स्थितिसे छुटकारा दिलानेके लिये मेरे प्राण सहर्ष प्रस्तुत हैं । यह प्राण देशके हैं और देशके लिये अर्पित हों, इससे अधिक सदुपयोग इनका और क्या होगा ? इसी बहाने विश्वात्मा प्रभुकी सेवा इस नश्वर कायासे हो जायगी।’
‘बेटा शतमन्यु ! तू धन्य है ।’ चिल्लाते हुए एक व्यक्तिने दौड़कर उसे अपने हृदयसे कस लिया। वे उसके पिता थे। ‘तूने अपने पूर्वजों को अमर कर दिया।’ शतमन्युकी जननी भी वहीं थीं। समीप आ गयीं। उनकी आँखें झर रही थीं उन्होंने शतमन्युको अपनी छातीसे इस प्रकार चिपका लिया, जैसे कभी नहीं छोड़ सकेंगी। नियत समयपर समारोहके साथ यज्ञ प्रारम्भ हुआ। शतमन्युको अनेक तीर्थों के जलसे स्नान कराकर नवीन वस्त्र आभूषण पहनाये गये सुगन्धित चन्दन लगाया गया। पुष्प मालाओंसे अलंकृत किया गया। बालक यज्ञ-मण्डप में आया। यज्ञ-स्तम्भके समीप खड़ा होकर वह देवराज इंद्र का स्मरण करने लगा। यज्ञ-मण्डप शांत एवं नीरव था। बालक सिर झुकाये बलिके लिये तैयार था;
एकत्रित जन-समुदाय मौन होकर उधर एकटक देख रहा था, उसी क्षण शून्यमें विचित्र बाजे बज उठे। शतमन्युपर पारिजात-पुष्पोंकी की आवृत्ति होने लगी। सहसा मेघध्वनिके साथ वज्रधर सुरेन्द्र प्रकट हो गये सब लोग आँख फाड़े आश्चर्य के साथ देख-सुन रहे थे। शतमन्युके मस्तकपर अत्यन्त प्यारसे अपना वरद हस्त फेरते हुए सुरपति बोले-‘वत्स ! तेरी भक्ति और देश की कल्याण-भावना से मैं संतुष्ट हूँ। जिस देशके बालक देशकी रक्षाके लिये प्राण अर्पण करनेको प्रतिक्षण प्रस्तुत रहते हैं, उस देशका कभी पता नहीं हो सकता। तेरे त्यागसे संतुष्ट होकर मैं बलिके बिना ही यज्ञ-फल प्रदान कर दूंगा। देवेन्द्र अन्तर्धान हो गये।
दूसरे दिन इतनी वृष्टि हुई कि धरतीपर जल-ही-जल दीखने लगा। सर्वत्र अन्न-जल, फल-फूलका प्राचुर्य हो गया। एक देश-प्राण शतमन्युके त्याग, तप एवं कल्याण की भावना ने सर्वत्र पवित्र आनंद की सरिता बहा दी।