शिव-स्तुति
को जाँचिये संभु तजि आन।
दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान ॥१॥
कालकूट-जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये विषपान ।
दारुन दनुज, जगत-दुखदायक, मारे त्रिपुर एक ही बान ॥२॥
जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत,श्रुति,सकल पुरान ।
सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान ॥३॥
सेवत सुलभ, उदार कलपतरु, पारबती-पति परम सुजान ।
देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसीदास कहँ कृपानिधान ॥४॥
भावार्थ-भगवान् शिवजीको छोड़कर और किससे याचना की जाय ? आप दीनोंपर दया करनेवाले, भक्तोंके कष्ट हरनेवाले और सब प्रकारसे समर्थ ईश्वर है॥१॥ समुद्र-मंथन समय जब कालकूट विष की ज्वाला से सब देवता और राक्षस जल उठे, तब आप अपने दीनोंपर दया करनेके प्रणकी रक्षाके लिये तुरंत उस विष को पी गये। जब दारुण दानव त्रिपुरासुर जगत्को बहुत दुःख देने लगा, तब आपने उसको एक ही बाणसे मार डाला ।। २ ॥ जिस परम गतिको संत-महात्मा, वेद और सब पुराण महान् मुनियोंके लिये भी दुर्लभ बताते हैं, हे सदाशिव ! वही परम गति काशीमें मरनेपर आप सभीको समानभावसे देते हैं॥३॥ हे पार्वतीपति! हे परम सुजान!! सेवा करनेपर आप सहजमें ही प्राप्त हो जाते हैं, आप कल्पवृक्ष के समान मुँहमाँगा फल
देनेवाले उदार हैं, आप कामदेव के शत्रु हैं। अतएव, हे कृपानिधान तुलसीदास को श्री राम के चरणों की प्रीति दीजिये